श्रीमद्भगवद्गीता - Digital Archive
॥ अथ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ ॥ अथ तृतीयोऽध्यायः कर्मयोगः ॥
अध्याय 3, श्लोक 1

अर्जुन उवाच — ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन । तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ॥१ ॥

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अध्याय 3, श्लोक 2

व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे । तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ॥२ ॥

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अध्याय 3, श्लोक 3

श्रीभगवानुवाच — लोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ । ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ॥३ ॥

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अध्याय 3, श्लोक 4

न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते । न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥४ ॥

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अध्याय 3, श्लोक 5

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् । कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥५ ॥

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अध्याय 3, श्लोक 6

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् । इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥६ ॥

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अध्याय 3, श्लोक 7

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन । कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥७ ॥

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अध्याय 3, श्लोक 8

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः । शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः ॥८ ॥

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अध्याय 3, श्लोक 9

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः । तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर ॥९ ॥

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अध्याय 3, श्लोक 10

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः । अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥१० ॥

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अध्याय 3, श्लोक 11

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः । परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥११ ॥

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अध्याय 3, श्लोक 12

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः । तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः ॥१२ ॥

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अध्याय 3, श्लोक 13

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः । भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ॥१३ ॥

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अध्याय 3, श्लोक 14

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः । यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥१४ ॥

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अध्याय 3, श्लोक 15

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् । तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥१५ ॥

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अध्याय 3, श्लोक 16

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः । अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥१६ ॥

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अध्याय 3, श्लोक 17

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः । आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥१७ ॥

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अध्याय 3, श्लोक 18

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन । न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥१८ ॥

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अध्याय 3, श्लोक 19

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर । असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः ॥१९ ॥

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अध्याय 3, श्लोक 20

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः । लोकसङ्ग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ॥२० ॥

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अध्याय 3, श्लोक 21

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः । स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥२१ ॥

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अध्याय 3, श्लोक 22

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन । नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥२२ ॥

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अध्याय 3, श्लोक 23

यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः । मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥२३ ॥

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अध्याय 3, श्लोक 24

उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम् । सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ॥२४ ॥

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अध्याय 3, श्लोक 25

सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत । कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसङ्ग्रहम् ॥२५ ॥

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अध्याय 3, श्लोक 26

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम् । जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन् ॥२६ ॥

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अध्याय 3, श्लोक 27

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः । अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥२७ ॥

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अध्याय 3, श्लोक 28

तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः । गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥२८ ॥

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अध्याय 3, श्लोक 29

प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु । तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत् ॥२९ ॥

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अध्याय 3, श्लोक 30

मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा । निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥३० ॥

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अध्याय 3, श्लोक 31

ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः । श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः ॥३१ ॥

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अध्याय 3, श्लोक 32

ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् । सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ॥३२ ॥

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अध्याय 3, श्लोक 33

सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि । प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥३३ ॥

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अध्याय 3, श्लोक 34

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ । तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥३४ ॥

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अध्याय 3, श्लोक 35

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् । स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥३५ ॥

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अध्याय 3, श्लोक 36

अर्जुन उवाच — अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः । अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥३६ ॥

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अध्याय 3, श्लोक 37

श्रीभगवानुवाच — काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः । महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् ॥३७ ॥

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अध्याय 3, श्लोक 38

धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च । यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ॥३८ ॥

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अध्याय 3, श्लोक 39

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा । कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥३९ ॥

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अध्याय 3, श्लोक 40

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते । एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् ॥४० ॥

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अध्याय 3, श्लोक 41

तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ । पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ॥४१ ॥

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अध्याय 3, श्लोक 42

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः । मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥४२ ॥

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अध्याय 3, श्लोक 43

एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना । जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ॥४३ ॥

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