श्रीमद्भगवद्गीता - Digital Archive
॥ अथ श्रीमद्भगवद्गीता ॥ ॥ अथ त्रयोदशोऽध्यायः क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोगः ॥
अध्याय 13, श्लोक 1

अर्जुन उवाच — एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते । ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ॥१ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 2

श्रीभगवानुवाच — मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते । श्रद्धया परयोपेताः ते मे युक्ततमा मताः ॥२ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 3

ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते । सर्वत्रगमचिन्त्यञ्च कूटस्थमचलन्ध्रुवम् ॥३ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 4

सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः । ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ॥४ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 5

क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् । अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते ॥५ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 6

ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः । अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ॥६ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 7

तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात् । भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम् ॥७ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 8

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय । निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः ॥८ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 9

अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम् । अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय ॥९ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 10

अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव । मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ॥१० ॥

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अध्याय 13, श्लोक 11

अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः । सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान् ॥११ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 12

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते । ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ॥१२ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 13

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च । निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी ॥१३ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 14

सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः । मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥१४ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 15

यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः । हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः ॥१५ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 16

अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः । सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥१६ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 17

यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति । शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः ॥१७ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 18

समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः । शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः ॥१८ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 19

तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित् । अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः ॥१९ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 20

ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते । श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः ॥२० ॥

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अध्याय 13, श्लोक 21

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु । ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ॥ भक्तियोगो नाम द्वादशोऽध्यायः ॥१२ ।

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अध्याय 13, श्लोक 22

अथ त्रयोदशोऽध्यायः । क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोगः ॥ अर्जुन उवाच — । प्रकृतिं पुरुषं चैव क्षेत्रं क्षेत्रज्ञमेव च ॥ एतद्वेदितुमिच्छामि ज्ञानं ज्ञेयं च केशव ॥१ ।

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अध्याय 13, श्लोक 23

श्रीभगवानुवाच — इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते । एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ॥२ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 24

क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत । क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ॥३ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 25

तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत् । स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे श‍ृणु ॥४ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 26

ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक् । ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः ॥५ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 27

महाभूतान्यहङ्कारो बुद्धिरव्यक्तमेव च । इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः ॥६ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 28

इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतना धृतिः । एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ॥७ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 29

अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् । आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ॥८ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 30

इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च । जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ॥९ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 31

असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु । नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ॥१० ॥

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अध्याय 13, श्लोक 32

मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी । विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ॥११ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 33

अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् । एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥१२ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 34

ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते । अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते ॥१३ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 35

सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् । सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥१४ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 36

सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् । असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ॥१५ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 37

बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च । सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत् ॥१६ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 38

अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् । भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ॥१७ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 39

ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते । ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम् ॥१८ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 40

इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः । मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते ॥१९ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 41

प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि । विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान् ॥२० ॥

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अध्याय 13, श्लोक 42

कार्यकारणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते । पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ॥२१ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 43

पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान् । कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ॥२२ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 44

उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः । परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः ॥२३ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 45

य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह । सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते ॥२४ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 46

ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना । अन्ये साङ्ख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ॥२५ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 47

अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते । तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः ॥२६ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 48

यावत्सञ्जायते किञ्चित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम् । क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ ॥२७ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 49

समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् । विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ॥२८ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 50

समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् । न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् ॥२९ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 51

प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः । यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ॥३० ॥

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अध्याय 13, श्लोक 52

यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति । तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥३१ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 53

अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः । शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥३२ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 54

यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते । सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ॥३३ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 55

यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः । क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत ॥३४ ॥

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अध्याय 13, श्लोक 56

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा । भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम् ॥३५ ॥

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